अलबरूनी एवं (किताब-उल-हिंद)

- अलबरूनी का जन्म उजबेकिस्तान के ख्वारिज्म में हुआ।

- वह अरबी, सीरियाई, फ्रांसीसी, हिब्रू, संस्कृत जैसी भाषाओ का विद्वान था। परन्तु उसे यूनानी भाषा का ज्ञान नहीं था।
- 1017 में महमूद गजनवी ख्वारिज्म पर आक्रमण कर कई विद्वानों व कवियों को अपनी राजधानी गजनी ले गया जिसमें अलबरूनी भी एक था। और मृत्यु हो रहा।
- गजनी में अलबरूनी की भारत के प्रति रुचि विकसित हुई और इसी समय संस्कृत में रचित गणित, खगोल विज्ञान, चिकित्सा का अरबी भाषा में अनुवाद हुआ।
- पंजाब का गजनवी साम्राज्य का हिस्सा बनने के बाद अलबरूनी भारतीय ब्राह्मणों, पुरोहितों व विद्वानों के संपर्क में आया और उसने उनके साथ कई वर्ष बिताकर संस्कृत व धर्मदर्शन का ज्ञान प्राप्त किया।
- किताब-उल-हिंद :-

- यह अरबी भाषा में लिखा गया एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसमें 80 अध्याय है।
- किताब-उल-हिंद की भाषा सरल एवं स्पष्ट है।
- इन अध्यायों में धर्म, दर्शन, रीति-रिवाजों, प्रथाओं, त्योहारों, खगोल विज्ञान, सामाजिक जीवन, भारतीय मापन विनिमय, मूर्तिकला, कानून, मापयंत्र, विज्ञान आदि के अध्याय है।
- इस पुस्तक से हमें भारत के 11वी शताब्दी के अंत से 11वी शताब्दी के शुरुआती दशकों की स्पष्ट झलक मिलती है।
- अलबरूनी को संस्कृत गणित, दर्शन, खगोल विज्ञान, चिकित्सा के विषयों में महारथ हासिल थी।
- प्रत्येक अध्याय एक विशेष शैली में लिखा गया है जो एक प्रश्न से शुरू होता है। इसके पश्चात इस विषय का भारतीय परम्पराये के अनुसार वर्णन होता है और अंत में उसकी तुलना अन्य यूरोपीय संस्कृतियों से होती है।
- वह संस्कृत, पाली व प्राकृत भाषाओं में लिखे कुछ ग्रंथों में सुधार का इच्छुक था।
- इतिहासकार ‘किताब-उल-हिंद’ को ज्यामितीय संरचना मानते हैं जो अलबिस्नी की स्पष्टता व उसका गणित के प्रति झुकाव के कारण है।
- उसने पंतजलि की व्याकरण का अरबी में अनुवाद किया।
- उसने युक्लिड के गणित के कार्यों का संस्कृत में अनुवाद किया।
- अलबरूनी व भारत की राजनैतिक दशा :-
- भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था तथा सभी राज्य स्वतंत्र था, जिनमें आपसी एकता की कमी थी। कश्मीर-मालवा, कन्नौज प्रसिद्ध राज्य थे।
- राजा निरंकुश होता था वह प्रजा का शोषण करता था।
- सामंती प्रथायें चरम सीमा पर थी। राजा सामंतो पर पूरी तरह निर्भर था।
- उस समय शक्ति का विकेन्द्रीयकरण हो चुका था। देश-प्रेम, तालमेल व एकता की भावना लगभग समाप्त हो चुकी थी।
- शासकों के पास अपनी स्थायी सेना नहीं थी। सेना के राजा सामंतों पर निर्भर था। हाथियों की सं०ता अधिक वू तीव्रग्रामी घुडसवार सूना के नामात्र ही थी।
- राजपूतों में आपसी फूट थी और देश की सीमाओं को मजबूत करने पर किसी का ध्यान नहीं था।
- तुर्कों के पास उत्तम नस्ल के घोड़े थे व प्रशिक्षित सेना थी।
- अलबरूनी व भारत की आर्थिक दशा :-
- भारत एक संपन्न देश था। यहाँ के मंदिरों व मठों के पास अपार धन राशि, सोना, चाँदी, हीरे-जवाहारात के भंडार थे।
- यहाँ अनाज व अन्य वस्तुओं का खूब उत्पादन होता था और यहाँ खनिजों की प्रचुरता थी।
- आय के मुख्य स्त्रोत कृषि, पशुपालन, बागवानी, व्यापार व उद्योग धंधे थे। सिंचाई नहरो, कुओं व तालाब से की जाती थी।
- उपज का 1/3 से 1/2 भाग तक लगान लिया जाता था।
- सामंती व्यवस्था का बोलबाला था और लगान लेने का अधिकार अब सामंतों के पास था।
- अत्यधिक संपन्नता ने विदेशी आक्रमणकारियों को आकर्षित किया।
- यहाँ सुती, ऊनी व रेशमी कपडों के विकसित उद्योग व्या बंगाल की व्यूती मलमल का उद्योग बहुत प्रसिद्ध था।.
अलबरुनी व भारत की सामाजिक दशा
० तहकीक-ए- हिंद के अनुसार भारतीय समाज आर्थिक दृष्ट से दो भागों में बंटा था :- शोषक व शोषित वर्ग
० धनी वर्ग का संसाधनो पर अधिकार था जबकि शोषित वर्ग को अपनी जीविका चलाने मे अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता था।
- जाति प्रथाकी जड़े फैल चुकी थी। ब्राहमणो की उत्पत्ति ब्रहमा के मुख से मानी गई थी और उन्हें सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त था l
- उसने जाति व्यवस्था को फारस के सामाजिक वर्गो के माध्यम से समझाने का प्रयास किया सया
- (i) घुडसवार व शासक वर्ग
- (ii) भिक्षु, अनुस्यूनिक पुरोहित व चिकित्सक
- (iii) खगोल शास्त्री व अन्य वैज्ञानिक
- (iv) कृषक व शिल्पकार
- उसने ब्राहमणवादी व्याख्या को स्वीकार तो किया लेकिन अपवित्रता की मान्यता को अस्वीकार किया उसका माळया थाल जो प्रत्येक वस्तु अपवित्र हो जाती है यह फिर पवित्रता को पुन: प्राप्त करने की कोशिश करती है।
- ब्राह्मण को पहला स्थान, दूसरा दर्जा क्षत्रियों को (ब्रहा की भुजाओं से उत्पति) तीसरा स्थान वैश्यों को (उदर से उत्पत्ति) , चौथा स्थान शुद्रों को (चरणों से उत्पत्ति मानी जाती थी)।,
- स्त्रियों की दशा इस काल में सम्मानजनक नहीं थी 1 राजपूत में कन्याओं के जन्म होते ही भरवा देने की प्रथा थी। समाज में 8 प्रकार के विवाह प्रचलित थी कन्या जन्म को अपशगुन माना जाता था ।
*बाल विवाह व बहु-विवाह प्रथा जोरों पर थी।
*उत्तर भारत में ज्वार, बाजरा, गेहूं, चना, फल व सब्जियाँ प्रचलित थी ‘जबकि दक्षिण भारत में चावल व मछली मुख्य भोजन था l
अलबरूनी के समक्ष बाधाएँ:
- पहला अवरोध भाषा का था l अल्बरुनी संस्कृत व अन्य भारतीय भाषाएँ नही जानता था इसलिए स्थानीय लोगों के साथ बात करना तथा यहाँ के ग्रंथों को पढ़ना कठिन कार्य था l
- दूसरा अवरोध धार्मिक प्रथायें व स्थानीय रीति-रिवाज थे जिसे विदेशियों को समझना कठिन था।
- तीसरा अवरोध अभिमान था। स्थानीय लोग अभिमान के कारण विदेशियों से बात नहीं करना चाहते थे।
- चौथा अवरोध राष्ट्रीयता का अभाव था क्योंकि सम्पूर्ण देश छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटा था जिसे विदेशी यात्रियों को समझना आसान नहीं था।
- इब्नबतूता एवं रिहाला

- इब्नबतूता 14वीं शताब्दी में मोरोक्को से आया प्रसिद्ध यात्री था जिसने ‘रिहाला’ नामक पुस्तक लिखी।
- सुल्तान महमूद ने उसकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर उसे दिल्ली का ‘काजी’ नियुक्त किया। (1335 ई. में)
- उसका जन्म तेंजियर के एक शिक्षित परिवार में हुआ था जो शरिया के कानूनों की विशेषज्ञता के लिए प्रसिद्ध था।
- उसने कम उम्र में ही साहित्यिक व शास्त्रों पर आधारित शिक्षा ली।
- उसे यात्रायें करने का शौक था और भारत आने से पहले वह सीरिया, इराक, फारस, यमन व अफ्रीका के कई देशों की यात्रायें कर चुका था।

- 1342 ई. उसे सुल्तान के दूत के रूप में चीन भेजा गया।
- वह मालाबार तट, श्रीलंका, मालद्वीप व सुमात्रा के रास्ते चीन के जायतुन शहर पहुंचा।
- 1347 में उसने वापस घर जाने का निश्चय किया।
- चीन के विषय में उसके वृतांतों की तुलना मार्को पोलो की यात्रा से की जाती है।
- इब्नबतूता एक हठीला यात्री था जिसने उत्तरी पूर्वी अफ्रीका, पश्चिमी एशिया, मध्यूसगरिया, चीन व रूस के कुछ भागों की कठिन यात्रायें की थी।
- इब्नबतूता के अनुसार उस समय यात्रायें असुरक्षित थी और उस पर कई बार डाकुओं ने हमले किये थे।
- वह सदा अपने साथियो के साथ कारवाँ में चलना पसंद करता था। मुलतान से दिल्ली की यात्रा में डाकुओं के हमले के कारण वह बुरी तरह घायल हो गया था।
- इब्न बतूता के अनुसार (मुलतान, सिंध से दिल्ली) की यात्रा में 40 दिन, तथा दौलताबाद से दिल्ली की यात्रा में भी 40 दिन का समय लगता था।
- इब्न बतूता ने नई संस्कृतियों, नये लोगों, मान्यताओं को बहुत सावधानी व कुशलतापूर्वक रिहाला में दर्ज किया।
- इब्नबतूता को अनजानी वस्तुएं व परम्परायें जानने में विशेष रूचि थी। वह भारत में नारियल व पान के उपयोगों से हैरान था।
- उसने नारियल को मानव शिर जैसा शिरिद्वार फल बताया जिसकी दो आँखें व एक मुख है। और अंदर का भाग मस्तिष्क जैसा दिखता है।
- पान एक ऐसा वृक्ष है जिसका कोई फूल नहीं होता और केवल इसकी पत्तियों को ही विभिन्न प्रकार से प्रयोग किया जाता है।
- इब्न बतूता व भारतीय शहर
- इब्न बतूता ने उपमहाद्वीप के शहरों को रोमांचक अवसरों, संसाधनों व कौशल से भरा पाया।
- यह शहर घनी आबादी वाले व समृद्ध थे।
- अधिकतर बाजार चमक-दमक वाले व रंगीन शहर थे जो तरह-२ की वस्तुओं से भरे-पडे थे।
- उसके अनुसार दिल्ली व दौलताबादू (महाराष्ट्र) बड़े विशाल व महान आबादी वाले शहर थे।
- दिल्ली शहर के 28 दरवाजे थे जिसमें बदायू दरवाजा सबसे विशाल है।
- मावनी दरवाजे के पास एक अनाज मंडी है और गुल दरवाजे के पास फलों का बगीचा है।
- बाजार केवल आर्थिक विनिमय के ही स्थान नहीं थे बल्कि यह अन्य सामाजिक व आर्थिक गतिविधियों के केन्द्र भी थे।
- सभी बाजारों में एक मंदिर व एक मस्जिद होता था।
- कलाकारों नर्तकों, संगीतकारों व गायकों के प्रदर्शन के लिए सार्वजिनक स्थान थे।
- भारतीय कपड़े मलमल, रेशम जरी तथा साटन की मध्य व पश्चिमी एशिया के देशों में भारी माँग थी।
- शिल्पकारों व व्यापारियों को इससे भारी मुनाफा होता था।
- भारतीय मिट्टी काफी उपजाऊ थी जिससे किसान एक वर्ष में 2 फसलें आसानी से उगा सकते थे।
- दौलताबाद में पुरुष व महिला गायकों के लिए विशेष बाजार था जिसे ताराबबाद कहते थे।
- इब्न बतूता व भारतीय संचार प्रणाली
- व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य ने विशेष उपाय किये। सभी व्यापारिक मार्गों पर सराय, विश्रामगृह व संचार कक्ष स्थापित किए गए।
- वह यहाँ की डाक-प्रणाली की कार्यकुशलता देखकर चकित रह गया।
- कुशल डाक प्रणाली ने व्यापारियों को लंबी दूरी तक सूचना भेजना व माल भेजना आसान हो गया।
- यह प्रणाली इतनी कुशल थी सिंध से दिल्ली की यात्रा में केवल 5 दिन लगते थे।
- डाक प्रणाली दो प्रकार की थी:
- उलूक (अश्व)
- दावा (पैदल)
- अश्व (घोड़े) की डाक व्यवस्था को उलूक कहा जाता है जो हर प मील की दूरी पर खड़े राजकीय बोडों द्वारा चालित होती थी।
- पैदल डाक व्यवस्था को दावा कहा जाता था। इसमें संदेशवाहक एक हाथ में पत्र व दूसरे में बेटियों वाली हुड के साथ भागता था।
- पैदल डाक व्यवस्था को दावा कहा जाता था इसमें संदेशवाहक एक हाथ में पत्र व दूसरे में घंटियों वाली हुड के साथ भागता था l
- पैदल डाकु व्यवस्था, अश्व डाक व्यवस्था से अधिक तीव्र होती है।
- फ्रांसवा बर्नियर एवं ट्रैवल्स इन मुगल एम्पायर

- फ्रांसवा बर्नियर एक फ्रांसीसी यात्री था।
- वह एक महान चिकित्सक, राजनीतिक दार्शनिक व इतिहासकार था।
- वह 1656 से 1668 तक 12 वर्षों तक भारत में रहा और मुगल दरबार से नजदीकी रुप से जुड़ा रहा।
- वह सम्राट शाहजहाँ के बूडे पुत्र दारा शिकोह के प्रधान चिकित्सक के रूप में उसके साथ रहा।
- उसने भारत के कई भागों की यात्रा की। वह भारत में जो भी देखता था उसकी तुलना यूरोप विशेषकर फ्रांस की स्थिति से करता था।
- बर्नियर की रचनायें फ्रांस में 1670-71 में प्रकाशित हुई जिसका कुछ ही समय में अंग्रेजी, डच, जर्मन भाषाओं में अनुवाद हुआ।
- उसकी प्रसिद्ध पुस्तक का नाम ‘ट्रेवल्स-इन-मुगल-एम्पायर’ है।

- बर्नियर ने मुगल सम्राट को “भिखारियों तथा कर लोगों का राजा” कहा है। उसके अनुसार अब मुगलकालीन शहर ध्वस्त हो चुके है और “खराब हवा” से दूषित है।
- बर्नियर ने भारत की स्थिति को यूरोप में हुए विकास की तुलना में दयनीय बताया। हालाकि उसका यह क्षेत्रीय आकलन सही नहीं था।
- बर्नियर मुगलकालीन शहरों को शिविर नगर कहता है जो अपने अस्तित्व के लिए राजकीय संरक्षण पर निर्भर थे। जबकि इसके विपरीत मुगल काल में सभी प्रकार के नगर पाये जाते थे जैसे उत्पादन केंद्र, व्यापारिक नगर, बदरगाह नगर, धार्मिक नगर इत्यादि।
- बर्नियर एव भूमि स्वामित्व मत्व का प्रश्न :-
- बर्नियर के अनुसार भारत में निजी भूस्वामित्व का अभाव था। उसका निजी स्वामित्व के गुण में दूद्ध विश्वास था।
- राजकीय स्वामित्व को देश व भूमि , दोनों के के लिए हानिकारक माना
- इनियर ने कहा कि यहाँ भूमिधारक अपने सच्चों को भूमि नहीं दे सकते थे अतः वह भूमि सुधार लाने में कोई रुचि नहीं लेते थे।
- भूमि स्वामित्व के के कारण कृषि का किसूनों का उत्पीडन हो रहा था। बर्नियूर के अनुसार ” भारत विनाश, में मध्य वर्ग की स्थिति के लोग नहीं हैं। । यहाँ एक अमीर व शासक वर्ग है जो अल्पसंख्यक होते हैं और एक बडा जनसमूह है जो दरिद्र लोगो का होता है।
- उसके अनुसार इसी कारण से यहाँ के अधिकतर खेत झाडीदार या घातक दलदल से भरे है। शासको को अपने विषयो पर पूर्ण अधिकार प्राप्त था।
- मुगल दस्तावेज यह नहीं पूर्ण कि राज्य ही भूमि का एकमात्र स्वामी था। इन दूस्तावेजों के अनुसार ‘भूमि राजस्व एक पारिश्रमिक है।
- शिल्पकारों को अपने उत्पादों को बेहतर बनाने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता था इससे उत्पादने के स्तर में कमी आ रही थी।
- बर्नियर ने लाहौर में सती प्रथा का वर्णन किया है।
- मास्टेक्यू व कार्ल मार्क्स उसके विचारों से प्रभावित थे।
- निजी सम्पति की अनुपस्थिति ने जमीदारों के उदय को रोक दिया व कृषि को बर्बाद कर दिया।
- लोग किन- किन उद्देश्यों से यात्रायें करते थे
- (1) कार्य व रोजगार की तलाश में
- (II) प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिए
- (III) व्यापार करने के लिए
- (IV) सैनिकों के रूप में
- (V) तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से
- (VI) साहस की भावना से प्रेरित होकर
- (VII) धर्म के प्रचार हेतू
- बर्नियर व 18 वीं शताब्दी के पश्चिमी विचारक
- बर्नियर के विवरणो ने अठारहवी शताब्दी के पश्चिमी विचारों को प्रभावित किया।
- (a) मान्टेस्क्यू पर प्रभाव :- बर्नियर के अनुसार मुगल साम्राजय में सम्राट सारी भूमि का स्वामी था। वह इसे अपने अमीरों में बांटता था जिसके परिणाम भारतीय समाज व अर्थव्यवस्था के लिए घातक होते थे । मान्टेस्क्यू ने इन्ही विचारों का प्रयोग निरंकुशवाद के सिद्धांत को विकसित करने के लिए किया।
- (b) कार्ल मार्क्स पर प्रभाव :- कार्ल मार्क्स ने बर्नियर के सिद्धांतों को बढ़ाया। उसके अनुसार उपनिवेशवाद से पहले प्रजा से धन व पैदावार का भाग, राज्य द्वारा हथिया लिया जाता था और लोगो को गरीबी व दासता का जीवन व्यतीत करने के लिए छोड़ दिया जाता था।
- (c) बर्नियर के विचारों ने एशियाई उत्पादन शैली की अवधारणा विकसित की।





